लेख-निबंध >> ज्योति जवाहर ज्योति जवाहरदेवीप्रसाद 'राही'
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत कृति ‘ज्योति-जवाहर’ राष्ट्रीय भावात्मक एकता के उन शाश्वत तत्वों पर आधारित है जो अनेक भौगोलिक परिस्थितियों, जलवायु, रहन-सहन, आचार-विचार और भाषा की विभिन्नताओं के वावजूद भी सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बाँधे हुए हैं। हिन्द-महासागर से हिमाच्छादित हिमालय की उत्तुंग चोटी कंचनजंगा, बालू भरे वृक्ष विहीन सूखे रेगिस्तानी से, वन एवं वर्षा, से ओत-प्रोत, हरियाली ओढ़े कामरूप की पहाड़ियों तक इस भावात्मक एकता का दर्शन देश के सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक परिवेश में बड़ी ही सरलता से किया जा सकता है। जो लोग पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण का प्रश्न उठाकर, जाति, भाषा, सम्प्रदाय और रीति-रिवाज की संकुचित मनोवृत्ति के आधार पर अलगाव तथा विघटन की बातें करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि भारतवर्ष की सांस्कृतिक एकता सदियों से अपनी अखण्डता का उद्घोष करती हुई असमानताओं एवं विषमताओं की चट्टानों को तोड़कर निरन्तर आगे बढ़ती रही है।
जंगल और पर्वत के निवासी हो या मैदान और रेगिस्तान के, गाँव के रहने वाले हों या नगर के; सम्पूर्ण देश के गुजराती, मराठी, राजस्थानी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयाली, उत्कल, बंगाली, असमी, भोजपुरी, मैथिली, मागधी, अवधी, ब्रजवासी, पंजाबी, कश्मीरी, हरियाणवी, मालवी और बुन्देले सभी लोगों के दिलों को भावात्मक एकरूपता से जोड़कर, भारतीयता के प्रति सहानुभूति जाग्रत करने वाले संवेदनात्मक तत्वों की रागात्मक प्रवृति से ही प्रस्तुत ग्रन्थ का ताना-बाना बुना गया है।
रचना की मूल प्रेरणा का स्रोत जननायक पं. नेहरू का यह महान चरित्र है जिसमें सम्पूर्ण भारतीय संस्कृतियाँ अपनी भावात्मक एकता के साथ मुखर हो उठी हैं। मैंने इन्हीं के माध्यम से राष्ट्रीय एकता के महान प्रतीक युग-पुरुष पं. नेहरू के व्यक्तित्व के चित्रण का एक लघु प्रयास किया है। ग्रन्थ के समर्पण की स्वीकृति उनसे, उनके जीवन-काल में ही प्राप्त हो जाने के बाद भी कुछ कारणों से यह ग्रन्थ तत्काल प्रकाशित न हो सका जिसके लिये मुझे अत्यधिक क्षोभ है और इसीलिये समर्पण के दो शब्द बाद में मुझे आँसुओं में डूबकर लिखने पड़े।
एक बात और !
आदरणीय दादा डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने प्रस्तुत पुस्तक की पांडुलिपि को देखकर मुझे प्रोत्साहित करते हुए अपने जो सृजनात्मक सुझाव दिये उसके लिये मैं उनका चिर-ऋणी रहूंगा, साथ ही इसके अधिकारी अंशों को ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ दिल्ली के मूर्धन्य सम्पादक श्रद्धेय श्री बाँकेबिहारी भटनागर ने धारावाहिक रूप से प्रकाशित करके इसकी लोकप्रियता की श्री-बुद्धि करने की जो कृपा की है वह उनकी व्यापक राष्ट्रीयता एवं जागरूक पत्रकारिता की ही परिचारिका नहीं अपितु मेरे लिये तो वह आशा, उत्साह एवं प्रेरणा का एक नूतन संबल भी है। इसके लिये मैं उन्हें किन शब्दों में धन्यवाद दूँ ? बड़ों के अन्तःकरण से निःसृत आशीष का मूल्य धन्यवाद अथवा कृतज्ञतापन ऐसे औपचारिक शब्दों के द्वारा चुकाया भी तो नहीं जा सकता।
जंगल और पर्वत के निवासी हो या मैदान और रेगिस्तान के, गाँव के रहने वाले हों या नगर के; सम्पूर्ण देश के गुजराती, मराठी, राजस्थानी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयाली, उत्कल, बंगाली, असमी, भोजपुरी, मैथिली, मागधी, अवधी, ब्रजवासी, पंजाबी, कश्मीरी, हरियाणवी, मालवी और बुन्देले सभी लोगों के दिलों को भावात्मक एकरूपता से जोड़कर, भारतीयता के प्रति सहानुभूति जाग्रत करने वाले संवेदनात्मक तत्वों की रागात्मक प्रवृति से ही प्रस्तुत ग्रन्थ का ताना-बाना बुना गया है।
रचना की मूल प्रेरणा का स्रोत जननायक पं. नेहरू का यह महान चरित्र है जिसमें सम्पूर्ण भारतीय संस्कृतियाँ अपनी भावात्मक एकता के साथ मुखर हो उठी हैं। मैंने इन्हीं के माध्यम से राष्ट्रीय एकता के महान प्रतीक युग-पुरुष पं. नेहरू के व्यक्तित्व के चित्रण का एक लघु प्रयास किया है। ग्रन्थ के समर्पण की स्वीकृति उनसे, उनके जीवन-काल में ही प्राप्त हो जाने के बाद भी कुछ कारणों से यह ग्रन्थ तत्काल प्रकाशित न हो सका जिसके लिये मुझे अत्यधिक क्षोभ है और इसीलिये समर्पण के दो शब्द बाद में मुझे आँसुओं में डूबकर लिखने पड़े।
एक बात और !
आदरणीय दादा डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने प्रस्तुत पुस्तक की पांडुलिपि को देखकर मुझे प्रोत्साहित करते हुए अपने जो सृजनात्मक सुझाव दिये उसके लिये मैं उनका चिर-ऋणी रहूंगा, साथ ही इसके अधिकारी अंशों को ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ दिल्ली के मूर्धन्य सम्पादक श्रद्धेय श्री बाँकेबिहारी भटनागर ने धारावाहिक रूप से प्रकाशित करके इसकी लोकप्रियता की श्री-बुद्धि करने की जो कृपा की है वह उनकी व्यापक राष्ट्रीयता एवं जागरूक पत्रकारिता की ही परिचारिका नहीं अपितु मेरे लिये तो वह आशा, उत्साह एवं प्रेरणा का एक नूतन संबल भी है। इसके लिये मैं उन्हें किन शब्दों में धन्यवाद दूँ ? बड़ों के अन्तःकरण से निःसृत आशीष का मूल्य धन्यवाद अथवा कृतज्ञतापन ऐसे औपचारिक शब्दों के द्वारा चुकाया भी तो नहीं जा सकता।
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